एक टीवी चैनल पर एक उद्घोषक ने कहा-‘‘नेपाल में उम्मीद से कहीं अधिक नुक्सान हुआ है।’’
नुक्सान की कभी उम्मीद या आशा नहीं होती वरन् डर या आशंका होती है। किसी
घटना के होने की संभावना या अनुमान होता है। इस संभावना को भी आशा या उम्मीद नहीं
कहा जा सकता। ऐसा लगता है कि टीवी चैनलों
ने हिन्दी भाषियों पर विज्ञापन थोपकर पैसा कमाने की ऐसी प्रवृत्ति घर कर गयी है कि
उन्हें भाषा के मूल शब्दों का अर्थ और भाव ही नहीं मालुम। हमें उन पर तरस नहीं आता
क्योंकि वह तो पैसा कमा रहे हैं। हमारे यहां कमाने के हजार खून माफ हैं। अफसोस इस
बात का है कि बहसों के समय ऐसे शब्द आते हैं और कोई विद्वान उन्हें टोकता नहीं है-शायद
डरते हैं कि कहीं उन्हें बुलाना न बंद कर दिया जाये।
मुश्किल यह है कि हमें समाचार सुनने की बीमारी बचपन से लगी है। उस पर भाषा
ज्ञान लकवाग्रस्त है। कहीं से कोई ऐसा शब्द जो भाव के विपरीत हो सहन नहीं हो पाता।
हिन्दी भाषा का श्रवण हो या पाठन धारा प्रवाह में जब कोई शब्द भाव से विपरीत होता
है तो मस्तिष्क ठहर जाता है। हमें तो हिन्दी से कमाने वालों से यह आशंका लगने लगी
है कि कहीं वह ऐसा हाल न कर दें कि कहीं ऐसी घटनायें सामने न आने लगें जो अर्थ का
अनर्थ कर दें। कैसे?
कहीं किसी अस्पताल में किसी सामूहिक दुर्घटटना पर घायल भर्ती हों और
उद्घोषक पूछें कि-‘अस्पताल में भर्ती घायलों के क्या हाल है?’’
जवाब मिले-‘‘ठीक है,
कई गंभीर हैं। उनका इलाज चल रहा है अब उनमें से किसी
के भी परमधाम गमन की कोई आशा नहीं है।’’
संभव है कि आगे चलकर समाज से आशंका और डर शब्द ही गायब हो जायें और अपने घर
के बीमार लोगों पर लोग ऐसी बातें कहने लगें। यह सोचकर हमें हिन्दी के पतन की
आशंकायें लगती हैं। उन्नति की आशा समाप्त होती नज़र आती है।
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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियरhindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com
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