हमारे भारतीय दर्शन में जिन संस्कारों को मनुष्य समाज के लिये आवश्यक बनाया गया है उनका कोई न कोई वैज्ञानिक आधार है। अक्सर हमारे यहां कहा जाता है कि बुजुर्गों का सम्मान होना चाहिए। इसके पीछे वजह यह है कि उनकी सामने उपस्थिति होने पर आयु तके छोटे मनुष्य की मनस्थिति पर कुछ न कुछ ऐसा तीव्र हलचल के साथ तीक्ष्ण प्रभाव पड़ता है जिसकी समझ होना जरूरी है। दरअसल जब बड़ी आयु का आदमी सामने खड़ा हो तब किसी भी युवक के हृदय में ऐसा प्रभाव होता है कि उसके प्राण ऊपर आ जाते हैं। आंखों में आदर के भाव प्रकट होने के लिये तत्पर होते हैं। उस समय अगर कोई ढीठता वश सीना तानकर खड़ा रहे तो यकीनन वह अपने हृदय और मस्तिष्क की नासिकाओं के लिये दुष्प्रभाव वाले कीटाणुओं का सृजन करता है। हालांकि अधिकतर युवक युवतियां स्वाभाविक रूप से मर्यादा का पालन करते हैं और इससे हम उनको संस्कारवान माने पर सच यह है कि बड़ो का आदमी करना छोटों का स्वाभाविक गुण होता है। जिनके मन मे ढीठता का भाव है वह भले ही ऐसा न करें पर कहीं न कहीं वही अपने प्राणों को स्थिर असुविधा के साथ विलंब से कर पाते हैं।
मनुष्य गुणों का ऐसा पुतला है जिसका इंद्रियां स्वाभाविक रूप से होता है। सच बात तो यह है कि किसी को अधिक ज्ञान देना उसे भ्रमित कर सकता है। उसी तरह ज्यादा ज्ञान प्राप्त करने से भी अनेक तरह के विरोधाभास सामने आते हैं। बेहतर यह है कि अपनी दिलचर्या को सहज रखा जाये। जब कोई दृश्य सामने आये या फिर कहीं हमें अपनी सक्रियता दिखानी हो वहां मन में सहज भाव रखना चाहिए तब स्वाभाविक रूप से हमारी इंद्रियां अंगों को संचालित करती हैं। अपने घर आये सज्जन लोगों का आदर करना चाहिए पर जहां अपना सम्मान न हो और हमारे स्वाभाविक गुणों के अनुसार कार्य की स्थितियां न हों वहां न जाना ही बेहतर है। भारतीय दर्शन इसलिये भी वैज्ञानिक आधारों वाला माना जाता है क्योंकि वह स्वाभाविक रूप से सहज कर्म में मनुष्य को लिप्त रहने की प्रेरणा देता है।
विदुर महाराज की नीति के अनुसार
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ऊधर्व प्राणा ह्युत्क्रामति पुनः स्थावरः आयति।
प्रत्युथानाभिवादाभ्यां पुनस्तान। प्रतिपद्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-किसी माननीय बुजुर्ग पुरुष के निकट आने पर पर नवयुवक के प्राण ऊपर गले तक आ जाते हैं फिर जब वह स्वागत में खड़ा होकर प्रणाम करता है तब उसके प्राणः पुनः पूर्ववत स्थापित होते हैं।-------------------------
ऊधर्व प्राणा ह्युत्क्रामति पुनः स्थावरः आयति।
प्रत्युथानाभिवादाभ्यां पुनस्तान। प्रतिपद्यते।।
पीठं दत्त्वा साधवेऽभ्यागताय आनींयामः परिनिर्णिज्य पापौ।
सुख पृष्टवा प्रतिवेद्यात्मासंस्था ततो दद्यादन्नमवेक्ष्य धीरः।।
हिन्दी में भावार्थ-धीर पुरुष को चाहिए कि वह अपने यहां सज्जन व्यक्ति के आने पर उसे उचित आसन प्रदान करने के साथ ही जल से उसके चरण पखारने के बाद उसकी कुशल क्षेम जानने के बाद अपनी बात कहे और फिर भोजन कराये।सुख पृष्टवा प्रतिवेद्यात्मासंस्था ततो दद्यादन्नमवेक्ष्य धीरः।।
मनुष्य गुणों का ऐसा पुतला है जिसका इंद्रियां स्वाभाविक रूप से होता है। सच बात तो यह है कि किसी को अधिक ज्ञान देना उसे भ्रमित कर सकता है। उसी तरह ज्यादा ज्ञान प्राप्त करने से भी अनेक तरह के विरोधाभास सामने आते हैं। बेहतर यह है कि अपनी दिलचर्या को सहज रखा जाये। जब कोई दृश्य सामने आये या फिर कहीं हमें अपनी सक्रियता दिखानी हो वहां मन में सहज भाव रखना चाहिए तब स्वाभाविक रूप से हमारी इंद्रियां अंगों को संचालित करती हैं। अपने घर आये सज्जन लोगों का आदर करना चाहिए पर जहां अपना सम्मान न हो और हमारे स्वाभाविक गुणों के अनुसार कार्य की स्थितियां न हों वहां न जाना ही बेहतर है। भारतीय दर्शन इसलिये भी वैज्ञानिक आधारों वाला माना जाता है क्योंकि वह स्वाभाविक रूप से सहज कर्म में मनुष्य को लिप्त रहने की प्रेरणा देता है।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com
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