हमारे देश में यथार्थवादी लेखकों तथा बुद्धिजीवियों को अनेक राजकीय सम्मान मिले हैं। यह लेखक और बुद्धिजीवी स्वयं को समाज का बहुत बड़ा झंडाबरदार समझते रहे हैं। स्थिति यह रही है कि इनके समर्थक इन्हें समाज का सच सामने लाने वाला ऐसा महान आदमी मानते हैं जो अगर पैदा नहीं होता तो शायद लोग अंधेरे में जीते। इन यथार्थवादियों को हिन्दी के प्रकाशन तथा प्रचार संगठनों का बहुत समर्थन मिला है। स्थिति यह रही है कि इनके यथार्थवाद ने समाज में कोई सुधार तो नहीं ला सका अलबत्ता इनकी सामग्री का प्रचार प्रसार होने पर अंतर्राष्ट्रीय पटल पर देश की छवि हमेशा खराब ही रही। इनको सांगठनिक प्रकाशन तथा प्रचार मिलने से समाज में अध्यात्म तथा साहित्यक क्षेत्र में निष्पक्ष लेखकों को कभी आगे बढ़ने का अवसर नहीं मिला।
इस यथार्थवाद में जिस कचड़े को प्रस्तुत किया जाता है दरअसल वह हमारे समाज में पहले से दिखता है। समाज के कुछ सदस्य इसे भोगते हैं तो कुछ उनके हमदर्द बनकर सहारा भी देते हैं। इन दोनों के लिये यथार्थवादी एक कल्पित क्रांतिकारी होता है। एक अभिनेता ने अभी हाल में टीवी चैनल पर समाज के अनेक यथार्थों को प्रस्तुत किया तो वह लोकप्रिय हो गया। सच बात तो यह है कि उसकी प्रस्तुति को आमजन में अधिक महत्व नहीं दिया क्योंकि समाज में वह सब पहले से ही देख रहा है। समाज की अनेक दुखांत घटनाओं के समाचार भी हम देख रहे हैं। यह अलग बात है कि हमारे प्रचार और प्रकाशन प्रबंधक मानते हैं कि भारतीय समाज सोया हुआ है और यथार्थ का चित्रण एक महत्वपूर्ण प्रयास है।
चाहे छोटे पर्दे का हो या बड़े पर्दे का अभिनेता वह बाज़ार और प्रचार समूहों का एक ऐसा बुत होता है जो आमजन को मनोरंजन में इस तरह व्यस्त रखने में सहायक होता है जिसका उसका दिमाग कहीं गरीब और अमीर के बीच बढ़ते तनाव के विचलित न हो और देश बदलाव से दूर रहे। इस यथार्थ में भले ही दोष आर्थिक, धाार्मिक, सामाजिक तथा राजनीति क्षेत्र के शिखर पुरुषों का हो पर उसके लिये समाज को दायी माना जाये। यह काम पहले लेखक करते थे अब अभिनेता भी करने लगे। छोटे और बड़े पर्दे पर अभिनेता तथा अभिनेत्रियों का राज है और बाज़ार तथा प्रकाशन से जुड़े व्यवसायी उनका चेहरे के साथ नाम अपनी सामग्री बेचने के लिये उसी तरह कर रहे हैं जैसे कि पहले बुद्धिजीवियों के लिये सेमीनारों का आयोजन तथा लेखकों की किताबें प्रकाशित करते थे।
बहरहाल इन्हीं यथार्थवादियों के लिये अब फेसबुक एक चुनौती पेश कर रहा है। यहां अनेक लोग समाज का चित्र अपने कैमरे से कैद कर इस मंच पर प्रस्तुत कर रहे हैं। वह चित्र डराते हैं, हंसाते हैं और दिल को गुदगुदाते हैं। उस दिन एक चित्र देखा उसमें एक गिलहरी प्लास्टिक की डंडी के सहारे ठंडेपेय की एक खाली बोतल में बची सामग्री अपने मुंह में खींचने की कोशिश कर रही थी। वैसे भी गिलहरियों की अदायें अनेक बार रोचक होती हैं। प्राकृतिक प्रेमियों के लिये उसकी चाल भी बड़ी रुचिकर होती है।
एक चित्र में दो बच्चों का चित्रण देखा जिसमें बड़ा बच्चा कचड़े से खाना उठाकर अपनी गोदी में बैठे बच्चे को खिला रहा था। हृदय को चुभोने वाला दृश्य यथार्थवादियों के ढेर सारे शब्दों या फिल्मों से अधिक प्रभावी था। ऐसे बहुत चित्र देखने को मिलते हैं जिनकी प्रस्तृति लंबी खींचने या उन पर शब्दों का अपव्यय करना बेकार लगता है। वह चित्र बहुत बड़ी कहानी कह देता है। हम जैसे आम लेखकों के लिये ब्लॉग और फेसबुक पर अधिक समर्थन नहीं होता न ही समाज में प्रचार मिलता है। इसका कारण यह है कि बाज़ार, प्रचार तथा प्रकाशन समूहों के शिखर पुरुष और उनके प्रबंधक अंतर्जाल पर केवल प्रचारित लोगों की उपस्थिति ही दिखाते हैं।
इस यथार्थवाद में जिस कचड़े को प्रस्तुत किया जाता है दरअसल वह हमारे समाज में पहले से दिखता है। समाज के कुछ सदस्य इसे भोगते हैं तो कुछ उनके हमदर्द बनकर सहारा भी देते हैं। इन दोनों के लिये यथार्थवादी एक कल्पित क्रांतिकारी होता है। एक अभिनेता ने अभी हाल में टीवी चैनल पर समाज के अनेक यथार्थों को प्रस्तुत किया तो वह लोकप्रिय हो गया। सच बात तो यह है कि उसकी प्रस्तुति को आमजन में अधिक महत्व नहीं दिया क्योंकि समाज में वह सब पहले से ही देख रहा है। समाज की अनेक दुखांत घटनाओं के समाचार भी हम देख रहे हैं। यह अलग बात है कि हमारे प्रचार और प्रकाशन प्रबंधक मानते हैं कि भारतीय समाज सोया हुआ है और यथार्थ का चित्रण एक महत्वपूर्ण प्रयास है।
चाहे छोटे पर्दे का हो या बड़े पर्दे का अभिनेता वह बाज़ार और प्रचार समूहों का एक ऐसा बुत होता है जो आमजन को मनोरंजन में इस तरह व्यस्त रखने में सहायक होता है जिसका उसका दिमाग कहीं गरीब और अमीर के बीच बढ़ते तनाव के विचलित न हो और देश बदलाव से दूर रहे। इस यथार्थ में भले ही दोष आर्थिक, धाार्मिक, सामाजिक तथा राजनीति क्षेत्र के शिखर पुरुषों का हो पर उसके लिये समाज को दायी माना जाये। यह काम पहले लेखक करते थे अब अभिनेता भी करने लगे। छोटे और बड़े पर्दे पर अभिनेता तथा अभिनेत्रियों का राज है और बाज़ार तथा प्रकाशन से जुड़े व्यवसायी उनका चेहरे के साथ नाम अपनी सामग्री बेचने के लिये उसी तरह कर रहे हैं जैसे कि पहले बुद्धिजीवियों के लिये सेमीनारों का आयोजन तथा लेखकों की किताबें प्रकाशित करते थे।
बहरहाल इन्हीं यथार्थवादियों के लिये अब फेसबुक एक चुनौती पेश कर रहा है। यहां अनेक लोग समाज का चित्र अपने कैमरे से कैद कर इस मंच पर प्रस्तुत कर रहे हैं। वह चित्र डराते हैं, हंसाते हैं और दिल को गुदगुदाते हैं। उस दिन एक चित्र देखा उसमें एक गिलहरी प्लास्टिक की डंडी के सहारे ठंडेपेय की एक खाली बोतल में बची सामग्री अपने मुंह में खींचने की कोशिश कर रही थी। वैसे भी गिलहरियों की अदायें अनेक बार रोचक होती हैं। प्राकृतिक प्रेमियों के लिये उसकी चाल भी बड़ी रुचिकर होती है।
एक चित्र में दो बच्चों का चित्रण देखा जिसमें बड़ा बच्चा कचड़े से खाना उठाकर अपनी गोदी में बैठे बच्चे को खिला रहा था। हृदय को चुभोने वाला दृश्य यथार्थवादियों के ढेर सारे शब्दों या फिल्मों से अधिक प्रभावी था। ऐसे बहुत चित्र देखने को मिलते हैं जिनकी प्रस्तृति लंबी खींचने या उन पर शब्दों का अपव्यय करना बेकार लगता है। वह चित्र बहुत बड़ी कहानी कह देता है। हम जैसे आम लेखकों के लिये ब्लॉग और फेसबुक पर अधिक समर्थन नहीं होता न ही समाज में प्रचार मिलता है। इसका कारण यह है कि बाज़ार, प्रचार तथा प्रकाशन समूहों के शिखर पुरुष और उनके प्रबंधक अंतर्जाल पर केवल प्रचारित लोगों की उपस्थिति ही दिखाते हैं।
आम लेखक का प्रचार करना इन समाज पर कब्जा जमाये अपने संगठनों से प्रतिबद्ध लेखकों तथा बुद्धिजीवियों के लिये चुनौती पेश करने में उनको डर लगता है। इसके बावजूद यह सच है कि फेसबुक ने इन सभी को चुनौती दी है। इनके पेशेवर बुद्धिजीवियों और लेखकों से आज की पीढ़ी कट गयी है।
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लेखक एंव कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
Writer and poet-Deepak raj kureja "Bharatdeep"
Gwalior' Madhya Pradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com
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