Tuesday, October 20, 2009

नया सामान और कबाड़-व्यंग्य कविता (naya saman aur kabad-hindi vyangya kavita)

सुनने और पढने वाला
जाल में फंस जाए
विज्ञापन ऐसे ही सजाये जाते हैं.
अगर उनमें सच होता तो
नहीं भर जाते घर उस कबाड़ के सामान से
जिनको खरीदा था कभी चाव से
बड़े महंगे भाव से
आये थे जो सामान नए बनकर ठेले से
वही कभी कबाड़ बनकर फिर उसमें लद जाते हैं.
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बाज़ार अब नगद ही नहीं
उधार पर भी चलते हैं.
चुकाते हुए रोते रहो
नहीं चुकाने पर
चीख पुकार भी मचती है
कभी उधार वाले
पहलवान बनकर गर्दन भी पकड़ते हैं.

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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