आज पूरे देश में बसंत पंचमी का पर्व मनाया जा
रहा है। इस अवसर पर बुद्धि की देवी श्री सरस्वती का पूजन किया जाता है। हमारे देश
में दिपावली के अवसर पर लक्ष्मी और बसंत पंचमी पर सरस्वती की आराधना करना इस बात
का प्रमाण है कि हमारे देश के लोग धन तथा बुद्धि के सामंजस्य से भरा जीवन जीना
चाहते हैं। उनमें सांसरिक विषयों के प्रति रुचि स्वाभाविक रूप से वि़द्यमान होने
के साथ ही अपने अध्यात्मिक ज्ञान के प्रति भी चेतना यथावत है। आमतौर से अध्यात्मिक दर्शन के प्रति झुकाव रखने
वालों के लिये सरस्वती की आराधना अत्यंत महत्व रखती है। जो लोग नियमित रूप से योग
साधना तथा हªदय में स्थित
ज्ञानार्जन के प्रति जिज्ञासा भाव को शांत करने के लिये अध्ययन के साथ अभ्यास करते
हैं उनके लिये श्रीसरस्वती की उपासना हर्ष प्रदान करती है।
बसंत पंचमी के साथ ही मौसम
परिवर्तित होता है। शीत लहर थमने लगती है
और समशीतोष्ण वायु देह तथा मन को प्रफुल्लित करते हुए प्रवाहित होती है। इतना
अवश्य है कि इस सुखद वातावरण की अनुभूति में व्यक्तियों की दृष्टि से भिन्नता हो
सकती है-कोई इसका अधिक आनंद उठाता है तो कोई कम! जो लोग नियमित रूप से योगाभ्यास
करते हैं उनको इसकी सहज पर व्यापक सुखानुभूति अनुभव होती है। उनके रक्त की हर बूंद
प्रसन्नता के साथ देह में विचरण करते हुए स्फूर्ति प्रदान करती है। सामान्य मनुष्य को भी कहीं न कहीं सुखद अनुभव
तो होता है पर वह उसे समझ नहीं आता। उसका
मन तथा शरीर कहीं न कहीं अज्ञात भाव से इस वातावरण का लाभ तो उठाता है पर उसे अधिक
देर तक साथ नहीं रख पाता। उसमें हार्दिक सुखानुभूति उतनी नहीं दिखाई देती जितनी
योगाभ्यासी में दिखती है।
इस संसार में अनेक विषय है
जिनमें मनुष्य का मन इस कदर लिप्त रहता है कि उसे सुख दुःख के साथ जीने का अभ्यास
हो ही जाता है। वह जैसी स्थिति होती है उसके अनुरूप ही भाव ग्रहण करता है। एक तरह से वह बाहरी दबाव से प्रभावित रहता
है। अपनी बुद्धि से मनुष्य कोई सृजन कर
उसका आनंद उठाने की बजाय दूसरे के अविष्कार का लाभ उठाना चाहता है। इसके विपरीत योगाभ्यासी तथा अध्यात्मिक दर्शन
साधक अपनी देह की आंतरिक सरंचना में ही सुख का साधन ढूंढता है। कहा जाता है कि
अपनी घोल तो नशा होय। दूसरे के सृजन का
लाभ उठाते हुए मन उकता जाता है जबकि अपने प्रयासों से जुटाये गये आनंद के क्षण का
भाव स्थायी होता है। नियमित सृजन करने वाला मनुष्य नित्य नये प्रयोग करता है और यह
प्रक्रिया उसे अपनी देह की सार्थकता का आनंद देने वाली होती है।
यही कारण है कि विद्वान तथा
ज्ञान साधक लक्ष्मी की बजाय सरस्वती की आराधना करती है। कहा जाता है कि सरस्वती और
लक्ष्मी देवी का आपस में बैर है और दोनों कभी साथ नहीं रहती। यह एक भ्रम है
क्योंकि दोनों की उपस्थिति प्रथक हो ही नहीं सकती। यह अलग बात है कि किसी के पास लक्ष्मी देवी तो
किसी पर सरस्वती की कृपा की प्रधानता होती है। दोनों की एक साथ प्रधानता हो ही
नहीं सकती और होना भी नहीं चाहिए। जिनके
पास धन है उनका अज्ञानी होना ही श्रेयस्कर है क्योंकि वह तब मदांध होकर उसका
अपव्यय नहीं कर पायेंगे जिससे कुछ लोगों की रोजी रोटी प्रभावित हो सकती है। जिनके पास धन अधिक नहीं है उनको सरस्वती माता
की ही आराधना करना चाहिए ताकि सांसरिक विषयों से मिली निराशा से मुक्ति पायी जा
सके। अंततः सुख और दुःख, आशा तथा
निराशा और संदेह और विश्वास मन के भाव हैं जिनका निर्माण बुद्धि ही करती है। अगर बुद्धि शुद्ध हो तो फिर इस संसार में किसी
अन्य वस्तु की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। सरस्वती माता को नमन।
बसंत पंचमी के इस पावन पर्व
पर समस्त ब्लॉग पाठकों, लेखक
मित्रों तथा स्नेहजनों को बधाई। हमारी कामना है कि यह पर्व सभी लोगों को प्रसन्नता
प्रदान करे।
लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियरhindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका
७.ईपत्रिका
८.जागरण पत्रिका
९.हिन्दी सरिता पत्रिका
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका
७.ईपत्रिका
८.जागरण पत्रिका
९.हिन्दी सरिता पत्रिका
No comments:
Post a Comment