मनुष्य के मन में किसके प्रति क्या है, यह सहजता से पता नहीं लगाया जा सकता है। रक्त संबंधों में माता और पिता अपने बेटे और
बेटी का विकास चाहते हैं इसमें कोई संदेह
नहीं है। वह किसी भी प्रकार से अपनी संतान
का अहित होने का विचार तक मन में नहीं लाते, इसके लिये उनको किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। अन्य
रिश्तों में यह बात लागू नहीं होती।
अधिकतर लोग मुंह पर तो शुभकामनायें देते हैं पर मन में वाकई उसका स्थान है
या नहीं यह कहना कठिन है। मनुष्यों के बीच
रिश्तों में समय, स्थिति और स्वार्थों के अनुसार उतार चढ़ाव आते ही रहते
हैं। गैर आदमी से असंतुष्ट होने पर उससे दूर रहा जा सकता है पर जिनके साथ
पारिवारिक संबंध है उनकी उपेक्षा करना सहज नहीं होता। यही कारण है कि जब किसी रिश्तेदार से कोई स्वार्थ
पूरा नहीं होता तो उसे सामने तो कोई आदमी कुछ नहीं कहता पर मन ही मन अमंगल कामना
तो करने ही लगता है। इसलिये जहां तक हो सके अपने लोगों से वाद विवाद करने से बचना
चाहिये।
दो रिश्तेदारों में झगड़ा हुआ। एक रिश्तेदार ने दूसरे से कहा-‘‘अभी तो तू मेरी उपेक्षा कर रहा है पर जिस दिन
कोई बीमारी आदि का संकट आया तो मैं ही तेरी सेवा करने वाला हूं, इसलिये सोच समझकर व्यवहार कर।’’
दूसरे ने कहा-‘‘तू मेरी
चिंता छोड़ अपनी कर। तेरा परिवार जिस तरह
डांवाडोल है उसके चलते तुझे मेरी ही आवश्यकता पड़नी है।’’
बात का बतंगड़ बन गया। दोनों के
बीच संवाद ही समाप्त हो गया। हमारे देश
में जिन रिश्तों की वजह से कथित संस्कारवान् होने का दावा किया जाता रहा है अब वह
आधुनिक समय में स्वार्थपूर्ति तक ही सीमित रह गये हैं। देश में सामान्य परिवारों की आर्थिक स्थितियां
ज्यादा मजबूत नहीं रही इसके बावजूद परंपराओं को को केवल रिश्ते के दबावों में ढोया
जा रहा है। रिश्तों में मिठास की बात तो
दूर शुष्कता का भाव हो तो ठीक है पर अब तो खटास जैसी प्रवृत्ति उसमें मिश्रित होती
दिखने लगी है। अभी तक हमने सुना था कि चीन
में एक बच्चे का नियम कानूनी रूप से लागू होने के कारण वहां का सामाजिक तानाबना
गड़बड़ा गया है पर भारत में तो सभ्रांत वर्ग ने कम संतान सुखी इंसान और हम दो हमारे
दो की नीति स्वेच्छा से अपनायी इस कारण अब शहरी समाज में बृहद संयुक्त परिवारों का
स्वरूप देखने को नहीं मिलता। यह दावा भी खोखला
हो गया है कि कम संतान से इंसान सुखी रहेगा। हमने तो यहां तक देखा है कि माता पिता
को इकलौता पुत्र है पर वह बाहर चला गया है तो अब बड़ी आयु के दंपत्ति एकांतवास कर
रहे हैं। उसकी बचपन की यादें उनके सीने
में है पर आंखों से जीवन की चमक गायब हैै। उनकी शुष्क आंखों को कोई भी पढ़ सकता है।
उस दिन एक सज्जन बता रहे थे कि उनकी कालोनी तो एक तरह से वृद्धाश्रम या
कालोनी बन गयी है। अधिकतर दंपत्ति वृद्ध हैं।
बेटा बाहर गया तो बेटी भी पराये शहर चली गयी। नाती और पोते हैं पर उनकी
यादें ही उनके पास है मिलने के लिये उनको दो तीन साल का इंतजार करना पड़ता है। मकान बड़ा है, किरायेदार रखना नहीं चाहते क्योंकि बाहर से बच्चे
आयेंगे तो रहेंगे कहां? घर के
काम के लिये नौकर पर निर्भर हैं। किसी दिन वह न आये तो वृद्ध दंपति निराश हो जाते
हैं। ऐसे दंपत्ति तो प्रतीक्षा करते हैं कि कोई गैर इंसान मिले तो उनसे अपने परिवार
की भव्य गाथा सुनाये। कभी पार्क में तो कभी मुहल्ले में दूसरे के घर जाकर वह अपनी
वाणी से शब्दों का विसर्जन करने का अवसर ढूंढते हैं। बृहद परिवार में हम आपसी
वैमनस्य का भाव देखते थे तो सीमित परिवारों में एकांत का दुःख भी कम नहीं दिखता।
जब हम समाज की बात बात करते हैं
तो पुराने स्वरूप का ही विचार रहता है। नये विघटित समाज की समझ अभी स्थाई नहीं बन
पायी। हम देखते हैं कि पेशेवर संतों के पास भीड़ बढ़ रही है तो उसका कारण लोगों के
मन में
धर्म के प्रति अधिक झुकाव नहीं वरन् एकांत से भीड़ में जाकर भाव परिवर्तन की
चाह पाने के प्रयास से अधिक कुछ नहीं हैै।
बात करें हम अध्यात्मिक दर्शन की तो सच्चाई यह है कि जिसमें यह इसके प्रति रुचि गुण बचपन से पड़ गया वह कभी एकांत में कष्ट नहीं
उठायेगा। योग साधना, ध्यान, नाम और मंत्र जाप तथा अन्य रचनात्मक प्रवृत्तियों के
चलते साधक अपना समय बेहतर व्यतीत करते हैं।
उन्हें यह भय नहीं सताता कि समाज उन्हें एकांत में धकेलकर आनंद उठायेगा।
हां, यह भी सच है कि हमारे समाज
में एक वर्ग ऐसा भी है जो इसी प्रयास में रहता है कि अपने पास एकत्रित भीड़ में वह
अकेले आदमी का मजाक बनाये। ज्ञान और योग
साधकों को ऐसे लोगों की परवाह नहीं रहती।
लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com
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