Saturday, February 25, 2012

रोना और हँसना-हिन्दी कविता

अब अपने दिल के घर से
बाहर आकर
न हम रोते
न हँसते हैं,
लोग पर्दे पर चलते अफसाने
देखते देखते
हो गए इस जहान के लोग
हर पल प्रपंच रचने के आदी
हम उनके जाल में यूं नहीं फँसते हैं।
कहें दीपक बापू
फिल्म की पटकथाएँ
और टीवी धारावाहिकों की कथाएँ
ले उड़ जाती हैं अक्ल पढ़े लिखे लोगों की
ख्याली दुनियाँ के पात्रों को ढूंढते हुए
ज़मीन की हक़ीक़तों में खुद ही धँसते हैं,
रोना तो छूट गया बरसों पहले
अब ज़माने के कभी बहते घड़ियाली आंसुओं
कभी फीकी उड़ती मुस्कान देखकर
अब अपने दिल को साथ लेकर
बस, हम भी हँसते हैं।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

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