Sunday, May 16, 2010

इस तरह की चर्चायें कन्या भ्रुण हत्यायें रोकना कठिन बना सकती हैं-हिन्दी लेख (public disscution and kanya bhrun hataya)

अगर कुछ ब्लाग लेखकों के पाठ की बातों पर यकीन किया जाये तो फिर उस पत्रकार युवती की हत्या/आत्महत्या का मामला न रहकर अनेक विषयों पर बहस का रह गया है। हमारे देश में कथित रूप से विकासवादी तथा मनुष्यवादी बुद्धिजीवियों का प्रचार माध्यमों, विश्वविद्यालयों के साथ ही सामाजिक संगठनों पर भी वर्चस्व है और उनकी नीति यह है कि मरे हुए आदमी पर अपनी शोक रचनायें रचो और उसके लिये किसी जिंदा आदमी खलनायक बनाओ। अगर कोई नारी मर जाये तो नारीवादी उसके लिये शिकार ढूंढते हैं भले ही वह नारी हो! बहु मरे तो सास बेटी मरे तो मां और बहिन मरे तो बहिन के खिलाफ जंग छेडते हुए उनको संकोच नहीं  होता।
वह एक युवती युवा पत्रकार थी जो बिहार के छोटे से शहर दिल्ली आई। यहां महानगर संस्कृति का आकर्षण को झेल नहीं पायी और जवानी की मस्ती में डूब गयी। पत्रकार प्रेमी से शादी की तारीख तय हुई पर वह नहीं हुई-मामले में यह सबसे बड़ा पैंच है। उच्च जाति की लड़की का विवाह अपने से कम जाति के लड़के से हो यह मां बाप को मंजूर नहंी था-यह प्रचार भी काल्पनिक लगता है क्योंकि प्रेमी की जाति को नीची तो नहीं माना जा सकता। लड़की गर्भवती थी और संदिग्ध हालत में उसकी उस समय मौत हो गयी जब वह घर में मां के साथ अकेली थी। कहना कठिन है कि वहन क्या हुआ पर सार्वजिनक रूप से जिस तरह इस उसके परिवार को लांछित किया जा रहा है वह गलत है।
पत्रकार प्रेमी ने दिल्ली में बैठक होहल्ला मचाया तो मां के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज हो गया। टीवी चैनलों पर बहस शुरु हो गयी। देश की जाति पाति और धर्म व्यवस्था को लेकर-यह भुला दिया गया कि गर्भवती होने के बाद यह विषय महत्वपूर्ण  नहीं  रहा था। जांच आगे बढ़ी तो पता लगा कि लड़की की आत्महत्या की बात तो पुलिस ने पहले ही मान ली थी पर दिल्ली से प्रचार माध्यमों के दबाव के चलते उसे हत्या का मामला बनाना पड़ा। अब पुलिस आत्महत्या के लिये उकसाने, धोखा देने तथा बलात्कार करने का मामला उसके पत्रकार प्रेमी पर दायर कर रही है। इसका मतलब यह है कि एक मौत पर दो अलग तरह के मामले बने हैं जो शायद कानूनी रूप से कुछ उलझन भरे हो सकते हैं।
इधर एक ब्लाग लेखक ने लड़की के पड़ौसियों के हवाले से दावा किया है कि यह आत्महत्या ही है क्योंकि उसकी एक पड़ौसन ने उसे सुबह देखा था तब वह उदास थी और उसके बाद ही यह घटना हुई। उस ब्लाग लेखक ने पत्रकार प्रेमी पर भी तमाम तरह की उंगलियां उठाई हैं।
हम यहां इन बहसों में दिये जा रहे तर्कों का खंडन या समर्थन नहीं कर रहे बल्कि ऐसे मामलों में सार्वजनिक रूप से चर्चाओं का परिणामों पर विचार करें तब लगेगा कि हम अनजाने में लोगों के अंदर आतंक का भाव बढ़ा रहे हैं। पोस्टमार्टम रिपोर्ट हत्या तथा आत्महत्या दोनों का इशारा कर रही है। वह भी ढंग से नहीं हुआ यह भी कहा जा रहा है। इधर दिल्ली में जन और प्रगतिवाद का दंभ भरने वाले बुद्धिजीवी इस तरह प्रदर्शन कर रहे हैं जैसे कि लड़की के हत्यारे माता पिता हों। एक बार शादी तय होकर स्थगित होने के मामले में वह नहीं जाना चाहते। वह इन संभावनाओं पर विचार नहीं करते कहीं घर से सहमति के नाम पर लड़की के माता पिता से दहेज ऐंठने का तो प्रयास नहीं हो रहा था। यह खतरनाक खेल है। इससे समाज में पहुंचने वाले संदेशों पर निगाह करें तो यकीनन वह कन्याओं की माताओ, पिताओं और भाईयों के लिये चिंता बढ़ाने वाले हैं।
वैसे ही अपने देश में कन्या भ्रुण हत्याओं को लेकर चिंतायें बढ़ रही है। अभी तक इसके लिये देश की दहेजप्रथा को माना जाता था पर ऐसी घटनाओं पर सार्वजनिक
बहस लोगों के मन में यह धारण बढ़ायेगी कि लड़कियों का जीना ही नहीं मरना भी अब तनाव का कारण बन सकता है। अगर उनकी लड़की किसी लड़के के प्रेम के चक्कर में पड़ी तो वह आत्महत्या कर ले तो वह उनको हत्या के जुर्म में भी फंसा सकता है और सबसे बड़ी बात यह कि उसकी मदद के लिये एक समूह भी मौजूद है। इसके अलावा यह भी हो सकता है कि जिन परिवारों में कन्यायें हैं वहां उनके माता पिता और भाई घर से बाहर निकलकर नौकरी करने या पढ़ने से प्रतिबंध लगा सकते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि कालांतर में लड़कियों को ही बुरे नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं। वैसे भी इस प्रकरण से एक बात समझ में आयी है कि प्राचीन घूंघट प्रथा हो या आधुनिक परंपरा की मस्ती उसके दुष्परिणाम लड़की को भी भोगने पड़ते हैं। हमारे पुराने विद्वान सही कहते हैं कि लड़की इज्जत पीतल के लोट की तरह है जो एक बार खराब होकर धुल जाता है जबकि लड़की इज्जत कांच की तरह है एक बार टूटी तो फिर नहीं जुड़ती। फिर अपनी लड़की की सार्वजनिक चर्चा किसी भी परिवार को मानसिक कष्ट देती है। इस तरह किसी मृत लड़की को न्याय दिलाने के लिये प्रदर्शन जीवित लड़कियों के लिये परेशानी का कारण बन सकता है। मुश्किल यह है कि कुछ कथित बुद्धिजीवियों को समझाना कठिन है वह तो मृतकों के शोक पर ही अपने ख्यालों तथा आदर्शों को रोटी की तरह पकाते हैं।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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