Saturday, February 28, 2009

नहीं बनी ऐसी कोई तराजू-हास्य व्यंग्य कविताएँ (nahin bani esi tarazu-hindi hasya vyangya kavitaen)

उनके कान खुले हैं
पर सुनते हैं कि नहीं कैसे बताएं
क्योंकि उनको सुनाया कई बार है दर्द अपना
पर कभी ऐसा नहीं हुआ कि वह कोई दवा लाएं
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इश्क तो असल अब वही है
जिसके नाम पर कोई उत्पाद
बाज़ार में बिकता है
औरत हो या मर्द
असल में जज्बातों खरीददार होता है बाज़ार में
भले ही माशूक और आशिक के तौर पर दिखता है
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शब्द बिके नहीं बाज़ार में
तो पढ़े भी नहीं जाते
बिकने लायक लिखें तो
समझने लायक नहीं रह जाते
शब्दों के सौदागरों बनते हैं हमदर्द
पर दिल में उनके जज़्बात कभी
पहुँच नहीं पाते
नहीं बनी कोई ऐसी तराजू
जिसमें शब्दों को तौल पाते
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