रंक का नाम जापते भी राजा बन जाते, भलाई के दावे से ही मजे बन आते।
‘दीपकबापू’ जाने राम करें सबका भला, ठगों के महल भी मुफ्त में तन जाते।।
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रुपये से जुड़े हैं सबके दिल के धागे, जिसे जितना मिले वह उतना ही दूर भागे।
‘दीपकबापू’ भीड़ में करते ज्ञान की व्यर्थ बात, ध्यान खोया नींद में भी सब जागे।।
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संवेदना नहीं पर दर्द अपना बताते हैं, लोग हमदर्दी मांगते हुए यूं ही सताते हैं।
‘दीपकबापू’ धड़कते दिल के जज़्बात सुला बैठे, पाखंड से भरी आह जताते हैं।।
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जीवन रूप में अलग अलग रंग मिले हैं, नवरसों से दुःख-सुख के फल खिले हैं।
‘दीपकबापू’ उंगलियां कलम छोड़ कंप्यूटर पर नाचें, भले-बुरे शब्द पर्दे पर मिले हैं।।
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गुरु अपनी भक्ति करायें ज्ञान न स्वयं जाने, अंधविश्वासियों में पुजते कम पढे काने।
‘दीपकबापू’ आंखें रोज देखतीं धर्मग्रंथ सुख से ऊबा गम में डूबा दिल अर्थ न माने।।
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अपने मन की बात लोग जानते नहीं, घृणा लंबी खींचे प्रेम की डोर तानते नहीं।
‘दीपकबापू कूंऐं की मेंढक जैसी सोच पालते, बेकार रिश्तों को जीवंत मानते नहीं।।
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