सिंहासन के लिये होता दंगल, घावों से रिसते खून में दिखाते मंगल।
‘दीपकबापू’ भावनाहीन हो गये, शहर भी डराते अब जैसे सूने जंगल।।
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संवेदनहीन शहर में घृणा बढ़ गयी, प्रेम की कीमत यूं ही चढ़ गयी।
‘दीपकबापू’ विश्वास की तलाश छोड़कर, आंख पत्थर में गढ़ गयी।।
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दौलत की चमक बढ़ा देती करचोरी, खर्च करें निर्बाध साथ सीनाजोरी।
‘दीपकबापू’ ईमानदारी का फंदा डाले, देशभक्ति में हाथ से सीते बोरी।।
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मत करना यकीन बात के बंदर हैं, देव दिखें बाहर राक्षस अंदर हैं।
‘दीपकबापू’ शब्दों पर चलाते व्यापार, वह केवल सपनों का समंदर हैं।।
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आम के दर्द की शिकायत खास दरबार में कौन सुने।
चापलूस सजे रत्न की तरह, जनकल्याण पर मौन बुने।।
मन का हाल आंख में छप जाता, शब्द सहमे बाहर आते,
‘दीपकबापू’ भौपूओं की महफिल में मधुर स्वर कौन चुने।।
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पेट जिनके भरे सीने उनके तने हैं, मत पूछो उनके महल कैसे बने हैं।
‘दीपकबापू’ दान दया का लगाते नारा, मन में लोभ के बादल घने हैं।।
अन्ना के चेले वोट की राजनीति में व्यापार में उनका नाम तक नहीं लेते। क्या दिलचस्प है?
भयातुर कभी भ्रष्ट से नहीं लड़ पाते, कातर कभी कष्ट से नहीं लड़ पाते।
‘दीपकबापू’ स्वार्थ के जाल में फंसे, परमार्थ में पत्ता भी नहीं जड़ पाते।।
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सपनों के व्यापार में सभी लगे, दौलत को निरंतर ताड़ते सभी जगे।
‘दीपकबापू’ स्मृतियां रहती क्षीण, खाली रहे ग्राहक फिर भी सदा भगे।।
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पत्तल छोड़कर सब थाली में खाने लगे, संगीत में शोर अब बजाने लगे।
‘दीपकबापू’ कोयल का सुर पहचाने नहीं, तालियों पर मेंढक टर्राने लगे।।
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