हम जैसे योग तथा ज्ञानसाधक मानते हैं कि
लीलामय संत सुंदर कपड़े और गहने पहने पर उसमें उनका भाव लिप्त नहीं है तो
चलेगा। कुछ संतों पर प्रचार युद्ध चल रहा है। हमारे अंदर अनेक तरक के विचार घूम
रहे हैं। विवादास्पद गुरु ज्ञानी नहीं होते यह बात मीडिया वाले कैसे तय कर लेते
हैं। क्या श्रीगीता का ज्ञान उन्होंने धारण कर लिया है? अनेक सवाल हमारे मन में
आते हैं। हमारा तो यह भी कहना है कि आर्थिक उदारीकरण के बाद हमारे हमारे समाज में
अस्थिरता आयी है जिसे मनोरोगों के साथ ही शारीरिक रूप से भी लोगों में अनेक विकार
पैदा हो रहे हैं। ऐसे में तनाव और रोगों से घिरे समाज में मानसिक रूप से
कमजोरों का सहारा बनने वाले पेशेवर संत प्रशंसायोग्य ही कहना चाहिये। उनका कमाना
भी बुरा नहीं।
इस विषय पर समाचर माध्यमों में जमकर बहस हो रही है पर लगता नहीं है कि धर्म
के विषय पर कोई पेशेवर विद्वान अपनी समझ
का प्रदर्शन कर पा रहा है। कर्मकांडों के आधार पर तर्क गढ़ने में सभी माहिर दिखते
हैं पर अध्यात्मिक ज्ञान का अभाव है। मीडिया-हिन्दी समाचार चैनल- अमीर संतों के
कारनामों की चर्चा के लिये समाचार और बहस के बीच इतना समय अपने विज्ञापनदाताओं की
चीजें बिकवाने के लिये लगाता है। इससे अध्यात्मिक साधकों को परेशान होने की जरूरत
नहीं है।
एक योग
तथा ज्ञान साधक होने के नाते हमारा मानना है कि
गीता का ज्ञान एक ऐसा चश्मा है जो अंतर्चक्षुओं पर पहनना ही चाहिये। उसे
गुरु मानकर पढ़ो, समझो
और फिर उसके आधार पर संसार को समझो। धर्म और धन लीला की समझ के साथ मजा भी आयेगा।
मीडिया अमीर संतों के कारनामों की चर्चा के लिये समाचारा और बहस के बीच इतना समय
अपने विज्ञापनदाताओं की चीजें बिकवाने के लिये लगाता है।
लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियरhindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com
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