Thursday, March 28, 2019

नाकामों ने दरबार सुंदर तस्वीरों से सजाया-दीपकबापूवाणी (Nakamon ne Darbar sundar Tasweeron se sajaya-Deepakbapuwani)


भलाई होती नहीं जंग के किस्से सुनाते, राजा भय से अपनी प्रीत के हिस्से भुनाते।
‘दीपकबापू’ नाचे कभी नहीं आंगन टेढ़ा बताया, विज्ञापनों में श्रृंगार गीत गुनगनाते।।
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नाकामों ने दरबार सुंदर तस्वीरों से सजाया, कामायाबी का भौंपू बाहर जोर से बजाया।
चिड़ियाओं की पुरानी बीट से रंगे हैं चेहरे, ‘दीपकबापू’ दाग को रंग बताकर सजाया।।
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पहना योगी भेष खुश होते उपहार संग, लेते राम नाम बदलें बार बार अपना रंग।
‘दीपकबापू’ अच्छे शब्द सुनकर हुए बोर, नये रास्ते चले सोच चाल वही पुरानी तंग।।
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कारिंदों के कारनामे राजा अपने नाम करते, जनता का धन लेकर अपने जाम भरते।
‘दीपकबापू’ लोकतंत्र का तमाशा देख रहे बरसों से, वोट हमारा हम ही दाम भरते।।
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मन फीके बाहर शोर से रंग डालें, पिचकारी हाथ में सोच में काली नीयत पालें।
‘दीपकबापू’ बधाई गान बजते सड़कों पर, घर के बर्तनों में सजी बेजुबान खालें।।

Tuesday, October 2, 2018

रंक का नाम जापते भी राजा बन जाते-दीपक बापू कहिन (Rank ka naam jaapte bhi raja ban jate-DeepakBapuKahin)

रंक का नाम जापते भी राजा बन जाते, भलाई के दावे से ही मजे बन आते।
‘दीपकबापू’ जाने राम करें सबका भला, ठगों के महल भी मुफ्त में तन जाते।।
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रुपये से जुड़े हैं सबके दिल के धागे, जिसे जितना मिले वह उतना ही दूर भागे।
‘दीपकबापू’ भीड़ में करते ज्ञान की व्यर्थ बात, ध्यान खोया नींद में भी सब जागे।।
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संवेदना नहीं पर दर्द अपना बताते हैं, लोग हमदर्दी मांगते हुए यूं ही सताते हैं।
‘दीपकबापू’ धड़कते दिल के जज़्बात सुला बैठे, पाखंड से भरी आह जताते हैं।।
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जीवन रूप में अलग अलग रंग मिले हैं, नवरसों से दुःख-सुख के फल खिले हैं।
‘दीपकबापू’ उंगलियां कलम छोड़ कंप्यूटर पर नाचें, भले-बुरे शब्द पर्दे पर मिले हैं।।
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गुरु अपनी भक्ति करायें ज्ञान न स्वयं जाने, अंधविश्वासियों में पुजते कम पढे काने।
‘दीपकबापू’ आंखें रोज देखतीं धर्मग्रंथ सुख से ऊबा गम में डूबा दिल अर्थ न माने।।
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अपने मन की बात लोग जानते नहीं, घृणा लंबी खींचे प्रेम की डोर तानते नहीं।
‘दीपकबापू कूंऐं की मेंढक जैसी सोच पालते, बेकार रिश्तों को जीवंत मानते नहीं।।
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Monday, August 13, 2018

मन मैले तन पर धवल वस्त्र पहन लेते-दीपकबापूवाणी (man maile tan par dhawaltra pahane-DeepakBapuWani)

राह पर निकले पता नहीं कहां जायेंगे, छोड़ा एक घर दूसरा ठिकाना जरूर पायेंगे।
‘दीपकबापू’ बरसों गुजरती जिंदगी यूं ही, इधर नहीं गये तो उधर जरूर जायेंगे।।
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भावना के व्यापार में सब लोग हैं चंगे, दान में बेचें दया बड़े दौलतमंद दिखें नंगे।
‘दीपकबापू‘ विज्ञापन जाल में फंसे सदा, नारे सुनकर केशविहीन खरीद लेते कंगे।।
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चमके दवा से चेहरे कंधे हैं फूले, अंदर बीमारी का घर कैमरे के सामने पांव झूले।
‘दीपकबापू’ पर्दे पर गधे भी लगे सुंदर, देखकर तांगे में जुते घोड़े अपनी चाल भूले।।
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मन मैले तन पर धवल वस्त्र पहन लेते, खिड़की से डालें कूड़ा सफाई ज्ञान गहन देते।
‘दीपकबापू’ प्रवचन भाषण में माहिर बहुत, शब्दो में भरे दया के नारे सबसे धन लेते।।
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हाथ फैलाये आकाश में उम्मीद से झाकें, दो पांव पर खड़े आंखों से पत्थर ताकें।
‘दीपकबापू’ सड़कों पर लहराते हथियार, कत्ल कर लाश पर अपनी हमदर्दी टांकें।।
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दुःख की अनुभूति बताये सुख भाव, अंग अंग का मोल समझाते लगे देह पर घाव।
‘दीपकबापू’ कल्पना विमान में खूब उड़ते, सत्य की नदी में पतवार से ही चले नाव।।
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Monday, July 16, 2018

सब घर भय के भूत लटके हैं-दीपकबापूवाणी (sab ghar mein Bhay ke bhoot latke hain-DepakBapuwani0

महलवासी प्रजा का दर्द क्या जाने,
हवा के सवार टूटी सड़क क्या जाने।
कहें दीपकबापू जोड़ बाकी के ज्ञानी
शब्दों के अर्थ ज्ञान क्या जाने।
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असुरों ने नाम कंपनी रख लिया,
धन से राज लूटा चेहरा ढक लिया
कहें दीपकबापू मत कर शिकायत
खुश रह तूने थोड़ा विष ही चख लिया।
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दर्द सभी के सीने में
हमदर्दी किससे मांगें।
‘दीपकबापू’ करते हैं रोने में भी पाखंड
उनके रुंआसे शब्द किस दीवार पर टांगें।
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हमदर्दी का पाखंड सभी किये जाते,
साथ अपने दर्द भी दिये जाते।
कहें दीपकबापू चीखती सभा में
शब्द अपने अर्थ स्वयं ही पिये जाते।
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विद्या अब व्यापार हो गयी,
शब्दधारा धन की यार हो गयी।
कहें दीपकबापू क्या सवाल पूछें
हर जवाब की हार हो गयी।
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मत कर उस्तादी हमसे यार
तेरे जैसे कई शागिर्द हमने पढ़ाये हैं,
अपनी बड़ी उम्र पर न गरियाना
छोटी उम्र में बड़े गधे लड़ाये हैं।
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सब घर भय के भूत लटके हैं,
लालच में सबके दिल अटके हैं।
कहें दीपकबापू न ढूंढो भक्तिवीर
कामना के वन सब भटके हैं।
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गधा दौड़ पर बहस जारी है,
रोज नया खजाना लुटने की बारी है।
कहें दीपकबापू सशक्त प्रहरी
जरूर जिसे रोज चुकाना रंगदारी है।
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राजाओं का खेल जंग पर टिका है,
सबसे बड़ा कातिल नायक दिखा है।
कहें दीपकबापू सिंहासनों की जंग में
बहुतेरों के सिर हार का दाग लिखा है।
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Saturday, June 9, 2018

अंतर्जाल पर बैठा है समाज, बांट रहा सरेआम अपने राज-दीपकबापूवाणी (Socity par Baitha samaj-DeepakBapuWani)


रात कों करें धनियों की गुलामी
दिन में राजा जैसे घूमते हैं।
कहें दीपकबापू कौन करे सवाल
वह प्रचारकों के चरण चूमते हैं।
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कैसे सच्चा माने पुराना इतिहास
रोज नया झूठा लिखते देख रहे हैं।
कहें दीपकबापू सेवा के नाम पर
सभी को मेवा खाते देख रहे हैं।
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अंतर्जाल पर बैठा है समाज,
बांट रहा सरेआम अपने राज।
कहें दीपकबापू बस यह आभास ही है
हमारा दर्द समझ रहा कोई आज।
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नीयत खराब तो अमृत क्या करेगा,
मृत भाव में सुख क्या प्राण भरेगा।
कहें दीपकबापू भक्ति रस
जिसने पिया वह किससे क्या डरेगा।
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इसानी मुख सब जगह दिखते हैं,
हाथों से दर्द लिखते हैं।
कहें दीपकबापू मरे जज़्बातों से
हमदर्द रोते दिखते हैं।

Wednesday, May 23, 2018

प्यारी तस्वीरें भी साथ नहीं होती-दीपकबापूवाणी (Pyari Tasweeren bhi sath nahin hote-DeepakBapuWani)

जिन रास्तों पर चलें मोड़ बहुत मिले हैं, आदर्शों का नारं धोखे के जोड़ बहुत मिले हैं।
‘दीपकबापू’ सदाचार का किला भले बनाया, मजबूरियों को उसके तोड़ बहुत मिले हैं।।
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प्यारी तस्वीरें भी साथ नहीं होती, लकीरों के चेहरों में मोहब्बत हाथ नहीं हेती।
‘दीपकबापू’ दिमाग में पाले कामना का भूत, उन बंदों में दिल की बात नहीं होती।।
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जल थल नभ पर दबंगों का पहरा है, धन बल से भुजायें सजीं पर कान बहरा है।
‘दीपकबापू’ खंजर हाथ का सब चाहें साथ, इंसान में जान खोने का डर गहरा है।।
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भीड़ इकठ्ठी कर सुना रहे प्रेम संदेश, धर्म के रंग मे रंगा उनका पूरा वेश।
‘दीपकबापू’ अलग अलग मंचों पर सजे चेहरे, नारों से जगा रहे सोया देश।।
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उपदेश करें सभी से अपने मन में न झोकं, आंखो में भरी धूल पराये गिरेबा ताकें।
‘दीपकबापू’ गुलामी की आदत से स्वाभिमान भूले, सेठों के चाकर राजा जैसे फांकें।।
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लूट को कमाई कहें उनके सिर पर है ताज, बेईमानी को चतुराई माने कर रहे राज।
‘दीपकबापू’ सज्जन सभी को मान लेते सच्चा, ठग चाहे करते हों स्वयं पर नाज़।।
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Saturday, April 21, 2018

लोहे पर रंग चढ़ना ही विकास नाम-दीपकबापूवाणी (Lohe par Rang chadhna viakas kia naam-DeepakBapuwani)

मधुरता से मिठास मिलना भी जरूरी है, रस भरी छाप में स्वादा भी जरूरी है।
‘दीपकबापू’ शब्दालंकार से सजाते रोज नये नारे, अर्थ से जिनकी बहुत दूरी है।।
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सब अपने दर्द पर भीड़ में रोते हैं, फैला रहे कू्रड़ा बाहर घर ही अपना धोते हैं।
‘दीपकबापू’ आमंत्रण भेजते रोगों को, किताबों में लिखी दवायें बेबसी में ढोते हैं।।
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प्रचार के दलाल गरीब नाम से पले, नारियों की बेबसी से महंगे विज्ञापन चले।
‘दीपकबापू’ थाली में खाकर ढेर छेद करें, अयोग्यता छिपाते बनते सबसे भले।।
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अपनी पुरानी सोच पर सब अड़े हैं, पुराने बुतों की यादें ल्रेकर खड़े हैं।
‘दीपकबापू’ अंग्रेजी पढ़े नये गंवार, पुरानी सभ्यता की नयी जंग लड़े हैं।।
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लोहे पर रंग चढ़ना ही विकास नाम, मनुष्य का अब भाव से नहीं रहा काम।
‘दीपकबापू’ शेर छवि पर चाल भेड़ जैसी, मकान खाली पड़े सड़क पर है जाम।।
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Sunday, March 25, 2018

जनधन लुटकर जमकर लंगर खाये-दीपकबापूवाणी (Jandhan lootakar langar khayen-DeepakBapuWani)

प्रदर्शन में शामिल भेड़ों से मांग पर बोलें, बंद कमरे में अपना मुंह दाम पर खोलें।
‘दीपकबापू’ लोकतंत्र में करें भले का सौदा, चरित्रवान जो छिपाये भ्रष्टाचार की पोलें।।
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जनधन लुटकर जमकर लंगर खाये, दरबार से निकले फिर भी जी ललचाये।
‘दीपकबापू’ फोकट खाने की आदत वाले, यहां से छूटे वहां खाकर गरियाये।।
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बेकार बहुत चाहे जहां भीड़ लगा लो, हमदर्दी बेचना है चाहे जहां पीर जगा दो।
‘दीपकबापू’ भूखा देव जैसे पूजें, दरबार में दूध गलियों में तेल की खीर लगा दो।।
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सामने खड़ी सूरतें भी अब अनजान हो गयीं, रोज दिखती मूरतों की भी शान खो गयीं।
‘दीपकबापू’ आंखों में न दिखा जवानी बुढ़ापा, नज़र और सोच जरूर बेजान हो गयीं।।
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तख्तनशीनो को सदा अपनों से रहे खतरे, बचे वही जिन्होंने साथियों के पर कतरे।
‘दीपकबापू’ चलते मर्जी से स्वतंत्र राह, वह राजयज्ञ में नहीं बनते किसी के बकरे।।
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महंगे मंच से बोले हर शब्द पर बजे ताली, चमके वक्ता चाहे वाक्य हो अर्थ से खाली।
‘दीपकबापू’ पुरानी किताबों का ज्ञान अपना जतायें, पौद्ये फूल जन्मते दावा करे माली।।
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भ्रष्टाचार के पीछे हर कोई लट्ठ लेकर पड़ा है, जोर से नारा लगाता वही जो भ्रष्ट बड़ा है।
‘दीपकबापू’ चाहकर भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते, उनके घरद्वार बंदूक का पहरा जो खड़ा है।।
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अपनी नाकामी के बहुत बनाते बहाने, कुंठित बुद्धि के स्वामी देते सभी को ताने।
‘दीपकबापू’ भलाई के ठेके लेते महंगे दामों में, सर्वशक्तिमान के नाम लेकर गाते गाने।।
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Sunday, March 11, 2018

पत्थरों के टूटने पर क्यों रोते हो-दीपकबापूवाणी-(Pattharon ki tootne par kyon rote ho-DeepakBapuWani)

लोभ लालच के मन में बोते बीज,
देह बना रहे राजरोग की मरीज।
कहें दीपकबापू सोच बना ली राख,
तब चिंता निवारण पर मत खीज।
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सोना चमके पर अनाज नहीं है।
सुर लगे बेसुर क्योंकि साज नहीं है।
कहें दीपकबापू महल तो रौशन
राजा भी दिखे पर राज नहीं है।
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खबर से पहले घटना तय होती,
विज्ञापन से बहस में लय होती।
कहें दीपकबापू फिक्स हर खेल
जज़्बात से सजी हर शय होती।
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पत्थरों के टूटने पर क्यों रोते हो,
 दृष्टिदोष मन में क्यो बोते हो।
कहें दीपकबापू नश्वर संसार में
विध्वंस पर आपा क्यों खोते हो।।
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बेरहमों ने बहुत कमा लिया,
बंदरों के हाथ उस्तरा थमा दिया।
कहें दीपकबापू मत बन हमदर्द
दर्द ने अपना बाजार ज़मा लिया।
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तन मन की हवस एक समान,
लालच के जाल में फंसा हर इंसान।
कहें दीपकबापू धर्म कर्म से जो रहित,
सौदागर देते सस्ते ग्राहक का मान।
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एक दूसरे में लोग ढूंढते कमी।
आपस में नही किसी की जमी।
कहें दीपकबापू दर्द बंटता है तभी
जब कहीं शादी हो या गमी।
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Thursday, January 25, 2018

चोर बन गये साहुकार घर के बाहर पहरेदार खड़े हैं-दीपकबापूवाणी (Chor Ban Gaye sahukar Ghar ka bahar khade hain-DeepakBapuWani)

कत्ल की कहानी सनसनी कहलाती,
इश्क से माशुका आशिक बहलाती।
दीपकबापू रुपहले पर्दे सबकी आंख
सौदागरों के मतलब सहलाती।।
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लोकतंत्र में मतलबपरस्त
छवि चमकाने में लगे।
लालची भी धर्मात्मा बनकर
सेवा के लिये धमकाने में लगे।
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चोर बन गये साहुकार
घर के बाहर पहरेदार खड़े हैं।
‘दीपकबापू’ पतित चरित्र के व्यक्ति
अखबार के विज्ञापन में बड़े हैं।
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कभी विनाश कांड देखकर
इतना जोर से मत रोईये।
रात के अंधेरे में विकास रहता
आप मुंह पर चादर ढंककर सोईये।।
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सड़क पर होते वादे बांटते,
तख्त पर बैठे प्यादे छांटते।
‘दीपकबापू’ मुखौटों की जाने चाल
अपने आकाओं को नहीं डांटते।
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देशी बोतल विदेशी ढक्कन लायेंगे,
स्वदेशी जुमला परायी पूंजी सजायेंगे।
‘दीपकबापू’ रुपया घर का ब्राह्मण
दावोस से डॉलर सिद्ध लायेंगे।
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शहर में आग यूं ही नहीं लगी,
जरूर किसी में वोटों की भूख जगी।
‘दीपकबापू’ लोकतंत्र में अभिव्यक्ति 
खरीद कर पूंजी बनती उसकी सगी।
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Sunday, December 3, 2017

सपने वादे बाज़ार में महंगे बिकते हैं-दीपकबापूवाणी

कमबख्त हांका लगाकार भीड़ बुला लेते, सपनो का लोलीपाप देकर सुला देते।
‘दीपकबापू’ जज़्बात बिकते बाज़ार में, नकदी लेकर सौदागर वादों में झुला देते।।
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सपने वादे बाज़ार में महंगे बिकते हैं, वहमी कभी झूठ के सामने नहीं टिकते हैं।
‘दीपकबापू’ लालची जाल में बुरी तरह फंसे, लोग अपनी बदहाली खुद लिखते हैं।।
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हर दिन नया अफसाना सामने आता है, मतलब से नया याराना सामने आता है।
‘दीपकबापू’ एक इंसान पर दिल नहीं रखते, हर पल नया ख्याल सामने आता है।।
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सब प्यारे है जग में भीड़ से अलग न्यारे हैं,नज़र डाली सब आंख के तारे हैं।
‘दीपकबापू’ मतलब लोगों का सिद्ध करते रहो, मत मांगों हिसाब अपने सारे हैं।।
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Saturday, October 21, 2017

गैर की तरक्की से जलते हैं वही तबाही से हाथ मलते हैं-दीपकबापूवाणी (Gair ki Tarkki se jalte hain vahi tabahi se hath malte hain-DeepakBapuwani)

गैर की तरक्की से जलते हैं
वही तबाही से हाथ मलते हैं।
‘दीपकबापू’ अपने चिराग जलायें
वरना घर में अंधेरे पलते हैं।
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जोगी भी राजपद पर चढ़ गये,
जोगसिद्धि के मद में गड़़ गये।
‘दीपकबापू’ जंगल के आजाद शेर
चिड़ियाघर के पिंजरे में मढ़ गये।।
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ऋषि ज्ञान रंग से कांति लाते,
राजा बड़ी जंग से शांति लाते।
‘दीपकबापू’ ज्ञान के नाम पाखंडी
बाज़ार में नारे सपने की भांति सजाते।।
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किस्सों में नमक मिर्ची लगा देते,
इंसानी दिल में आग जगा देते।
‘दीपकबापू’ जज़्बातों के सौदागर
लालच के पीछे ज़माना भगा देते।
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मर्म में विचार मंद बहे जाते हैं,
अर्थ बड़े पर शब्द चंद कहे जाते हैं।
‘दीपकबापू’ संवादहीन हुआ ज़माना
लोग दिल में दर्द बंद सहे जाते हैं।
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Saturday, September 2, 2017

कुदरत के कायदे से ज़माने के रंग बदलते-दीपकबापूवाणी (kudrat ke kayde ka rang badalte-DeepakBapuWani)

दिलदार का रूप पर सोच के छोटे होते, सिक्कों जैसे कुछ इंसान भी खोटे होते।
‘दीपकबापू’ सजधज कर सामने आते पर्दे में, मगर खरी नीयत के उनमें टोटे होते।।
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कुदरत के कायदे से ज़माने के रंग बदलते, लोगों का वहम कि स्वयं ढंग बदलते।
‘दीपकबापू’ चले जा रहे जिंदगी में बदहवास, जिंदगी से पहले उनके ख्याल ढलते।।
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उनके हाथ में मदद बटोरते खुले झोले हैं, आंखों मे आर्त भाव तो चेहरे भी भोले हैं।
‘दीपकबापू’ सर्वशक्तिमान के दरबार में बैठे, बाहर बेबस रूप धरे मस्तों के टोले हैं।।
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घरों के दरवाजे खिड़कियां रहते अब बंद, इश्क की बस्ती वाले दिल रह गये अब चंद।
‘दीपकबापू’ अपने दर्द पर चाद डाल देते, हमदर्द ही हौसलों के कदम करते अब मंद।।
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धन के आसक्त भजन करने भी लग जाते, कोई श्रद्धा जगाये कोई कभी ठग जाते।
‘दीपकबापू’ चेतना की संगत में हुए सयाने, वह निद्रा में बजती घंटी तभी जग जाते।।
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शुल्क लेकर वाणी धाराप्रवाह चलती है, धन से ज्ञान की रौशनी बाहर जलती है।
‘दीपकबापू’ सुविधाभोगी बांटें श्रम ज्ञान, क्या जाने पसीने के बूंद आग में पलती है।।
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Friday, August 11, 2017

हृदय में रस से पत्थर भी गुरु हो जाते हैं-दीपकबापूवाणी (Hridya mein ras se PATHAR BHI GURU HO JATE HAIN-DEEPAK BAPUWANI)

हृदय में रस से पत्थर भी
गुरु हो जाते हैं।
दर्द के मारे रसहीन
जहां कोई मिले
रोना शुरु हो जाते हैं।
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गरीबों के उद्धार के लिये
जो जंग लड़ते हैं।
उनके ही कदम
महलों में पड़ते हैं।
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दिल की बात किससे कहें
सभी दर्द से भाग रहे हैं।
किसके दिल की सुने
सभी दर्द दाग रहे हैं।
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ईमानदारी से जो जीते
गुमनामी उनको घेरे हैं।
चालाकी पर सवार
चारों तरफ मशहूरी फेरे है।
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जहां शब्दों का शोर हो
वह शायर नहीं पहचाने जाते।
जहां जंग हो हक की
वहा कायर नहीं पहचाने जाते।
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समय का खेल 
कभी लोग ढूंढते
कभी दूर रहने के बहाने बनाते।
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राजपथों की दोस्ती
वहम निकलती
जब आजमाई जाती है।
गलियों में मिलती वफा
जहां चाहत जमाई नहीं जाती है।
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कंधे से ज्यादा  बोझ दिमाग पर उठाये हैं,
खाने से ज्यादा गाने पर पैसे लुटाये हैं।
मत पूछना हिसाब ‘दीपकबापू’
इंसान के नाम पशु जुटाये हैं।
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नाम कमाने मे श्रम होता है,
बदनामी से कौन क्रम खोता है।
‘दीपकबापू’ कातिलों की करें पूजा
शिकार गलती का भ्रम ढोता है।।
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Friday, July 14, 2017

जंग लगी ख्याल पर-हिन्दी लघुकवितायें (jang lagi khyal par-Hindi Laghu kaitaey HindiShortpoem)

आकाश के उड़ते पंछी
जमीनी कीड़ों की परवाह
कहां करते हैं।
नीचे आते केवल
दाना पानी पेट में भरते हैं।
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ढेर सारी किताबें
आले में सजी पड़ी हैं।
कभी पढ़ने के इरादे जरूर
अभी कंप्यूटर में आंखें गड़ी हैं।
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भूख पर बहस से
बहुत पेट भर जाते हैं।
पर्दे पर कोई रोटी नहीं पकाता
सब रुदन से रेट भर आते हैं।
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मकान बड़े बनाये
घर छोटे होते गये।
चार से दो हुए
फिर दो होकर
अकेले यादों में खोते गये।
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जंग लगी ख्याल पर
प्रगति पथ पर चले जा रहे हैं।
बनाया कागजों का स्वर्ग
हवा में जो गले जा रहे हैं।
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हादसों से 
पेशेवरों हमदर्दों की
मलाई बन जाती है।
शब्दों से पकती मदिरा
भरे ग्लास से
कलाई तन जाती है।
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Sunday, June 11, 2017

दलालों के कारिंदे बाज़ार में आग सजाते-दीपकबापूवाणी (Dalalon ka karinde bazar mein aag sajate-DeepakbapuWani)

शब्दों के खिलाड़ी प्रेम से सहलाते, नरक में स्वर्ग लाने के वादे से बहलाते।
‘दीपकबापू’ विज्ञापन से पाई वाणी, आज का सच कल के सपने में नहलाते।
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बेरहम सौदागर के गोदाम में रहम बंद है, गुलाम रखते लेखे जुबान बंद है।
‘दीपकबापू’ दोनाली से निकाल रहे अमन, सफाई के पाखंडी नीयत गंद है।।
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बाज़ार जवानी के जोश में इश्क मिलाता, विष भी अमृतरस जैसा पिलाता।
‘दीपकबापू’ नशे में शैतान बने अमीर, दोस्त क्या दुश्मन भी हाथ मिलाता।।
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दलालों के कारिंदे बाज़ार में आग सजाते, सौदागर अमन का राग बजाते।
‘दीपकबापू’ खूनखराबे के खेल में माहिर, लोग फरिश्तों पर भी दाग लगाते।।
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प्रसिद्धि में बड़े पर कदम उनके छोटे हैं, बदनामी का डर साथ चैन के टोटे हैं।
‘दीपकबापू’ हर पल श्रृंगार करते चेहरे पर, शब्दों में सौंदर्य पर विचार खोटे हैं।।
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आंखों के सामने पर आस नहीं होते, हाथों में हाथ पर दिल के पास नहीं होते।
‘दीपकबापू’ प्रेम के पाखंड में हो गये दक्ष, गले मिलते पर सभी खास नहीं होते।।
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गुलामी का बरसों पुराना सबक पढ़ाते, आजादी का नित नया नारा आगे बढ़ाते।
‘दीपकबापू’ पुराने आकाओं का ज्ञान पकड़ा, बिन रोटीदाल कागज का दान चढ़ाते।।
---
सुंदर शब्द के पीछे कुविचार छिपाते, विकास के पीछे ढांचे तबाह कर छिपाते।
‘दीपकबापू’ समाज सेवा में लेते दलाली, सबकी भक्ति में लगे आसक्ति छिपाते।।
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गर्मी में पानी की बूंदें स्वर्ग बरसायें, न हों तो शीत में नरक जैसा तरसायें।
‘दीपकबापू’ स्वर्ण के मोह में अंधे हुए, न प्यास बुझे न सूखी रोटी भी पायें।
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दिल में चाहत जेब में पैसा नहीं है, कर्जे से चमक जाये चेहरा ऐसा नहीं है।
‘दीपकबापू’ सपने उधार से सच बनाये, अंधेरे दिल में रौशनी जैसा नहीं है।।
---
सोच से पैदल अक्लमंदों के कहार होते, पूछते रास्ता उनसे जो भटके यार होते।
‘दीपकबापू’ अजीब नज़ारे देखे दुनियां में, होशियार जूझें मझधार में मूर्ख पार होते।।
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दिल के लिये अब कोई नहीं खेलता, सौदागर खेल जुआ बना पैसा पेलता।
‘दीपकबापू’ व्यापारी मन बना लिया, जेब भरे हार भी दिलदार जैसा झेलता।।
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गोदाम में अनाज का भंडार रखा है, बाहर गरीब ने बस भूख को चखा है।
‘दीपकबापू’ तख्त पर बैठ करें बंदोबस्त, दलाली करने वालों के ही सखा हैं।
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बहुत देर गरजे पर बादल बरसे नहीं, भरे भंडार जिनके प्यास से वह तरसे नहीं।
‘दीपकबापू’ हमदर्दी दिखाने भीड़ में जाते, भूखे पर हाथ फेरें पर रोटी परसे नहीं।।
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स्वार्थ साधना में फंस गयी आसक्ति, लोहे लकड़ी के सामान पर चढ़ गयी भक्ति।
‘दीपकबापू’ मांस के बुतों में ढूंढ रहे देवता, बीमारी पालते दवा की भा गयी शक्ति।।
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Saturday, May 20, 2017

भूख से ज्यादा थोपा गया मौन सताता है-छोटी हिन्दी कवितायें तथा क्षणिकायें (Bhookh se Jyada Thopa gaya maun satata hai-ShortHindiPoem)

पर्दे पर विज्ञापन का
चलने के लिये
खबरों का पकना जरूरी है।
ढंग से पके सनसनी
अपना रसोईया
रखना जरूरी है।
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अपने पर लगा इल्जाम
बचने के लिये रोना भी
अच्छा बहाना है।
एक ही बार तो
आंसुओं में नहाना है।
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प्यास अगर पानी की होती
नल से बुझा लेते।
दर्द बेवफाई का है
कैसे इश्क की दवा सुझा देते।
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फरिश्तों को पहचाने
दिलाने के लिये
शैतान पाले जाते हैं।
इसलिये अपराधों पर
पर्दे डाले जाते हैं।
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सपने नहीं बेच पाये
लोगों को गरीब बताने लगे।
काठ की हांड
जब दोबारा नहीं चढ़ी
खराब नसीब बताने लगे।
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दिल अगले पल क्या सोचेगा
हमें पता नहीं है।
वफा हो जाये तो ठीक
बेवफाई की खता नहीं है।
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भूख से ज्यादा
थोपा गया मौन सताता है।
भीड़ की चिल्लपों में भी
वही याद आता है।
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पर्दे पर सौंदर्यबोध की
अनुभूति ज्यादा बढ़ी है।
मुश्किल यह कि
जमीन पर सुंदरता
बिना मेकअप के खड़ी है।
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वह भूत ही होंगे
जो ज़माने को लूट जाते हैं।
सभी इंसान निर्दोष है
इसलिये छूट जाते हैं।
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देह से दूर हैं तो क्या
दिल के वह बहुत पास है।
आसरा कभी मिलेगा या नहीं
जिंदा बस एक छोटी आस है।
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दिल तो चाहे
 पर यायावरी के मजे
सभी नहीं पाते हैं।
ंभीड़ के शिकारी
अकेलेपन से डर
मुर्दे साथ लाते हैं।
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कमरे में रटकर
मंच पर जो भाषण करे
वही जननेता है।
क्या बुरा
अभिनय के पैसे लेता है।
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कल का ईमानदार
आज भ्रष्ट कहलाने लगा है।
सच है लोकमाया में
कोई नहीं किसी का सगा है।
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लुट जाते खजाने
चाहे बाहर भारी पहरा है।
चोरों के नाम पता
पर रपट में लिखा
जांच जारी राज गहरा है।
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महल बनाने के लिये
कच्चे घरों का ढहना जरूरी है।
नये विकास सृजकों की नज़र में
पुराने ढांचे बहना जरूरी है।
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