Saturday, July 26, 2014

पत्थर और इंसानी बुत-हिन्दी व्यंग्य कविता(pattha aur insani but-hindi satire poem)




प्राणहीन पत्थर के बुत हैं
कितना भी पुचकारो
मगर कभी बोलते नहीं हैं।

ज्ञानहीन मांस के बुत है
कितना भी पुचकारो
अर्थ के बिना शब्द तोलते नहीं हैं।

पानी के प्रेम से पत्थर घिस जाते हैं,
मांस के पिंड कौड़ियों में ही पिस पाते हैं,
जज़्बातों में दिल खोलते नहीं हैं।

कहें दीपक बापू पूजने पर
पत्थर में परमात्मा के दर्शन संभव हैं
मगर जिनको मिला है
कुदरत से सांसों का तोहफा
बिना दाम लिये किसी के दर्द में
उम्मीद का रस घोलते नहीं है।
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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

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